Monday, March 14, 2011

सांझ

एक शाम सुहानी थी
मौसम भी दीवाना था |
चाँद अकेला था
और एक बादल को रिझाना था |

लहरों के तरन्नुम पर
मांझी को गाना था |
नाव की इठलाती शमा का
आशिक तो परवाना था |

रातकली की खुशबु थी
भँवरे को गुनगुनाना था |
ढलते हुए सूरज को
क्षितिज में समाना था |

हवाओं को किसी दूर देश से
एक संदेसा तो लाना था |
साहिल पे खड़े किसी का
इंतज़ार भी पुराना था |

Wednesday, January 19, 2011

पलों के बीच का एक पल

एक शाम सागर किनारे
यूँही अकेला बैठा था|
ठंडी नमकीन हवा
लहरों की गर्जन से मिलकर
बालों को सहलाते हुए
चली जाती थी|

इसी बीच आँखें बंद की तो देखा
की एक पल के ख़त्म होने
और दुसरे के शुरू होने के बीच की
जो दीवार होती है,
उसमें एक दरवाजा है|

दरवाजा खोला, झाँका तो देखा
एक मनमोहक, शांत, भव्य कक्ष|
अन्दर प्रवेश किया तो लगा
जैसे बिछड़े प्रेमी से सालों बाद मिल
कसकर गले लग, मदहोश हो गया हूँ|

कुछ नशा सा छा गया,
मन संतुष्ट लग रहा था|
जब पिछला सब भूल गया
और आनेवाले का डर भी ना रहा|

फिर अचानक हाथ खुदबखुद
एक और दरवाजे की और बढ़ गया|
दरवाजा खोला और उसके खुलते ही
आँखें भी खुल गयीं|

हवाएं फिर लहरों की गर्जन से मिलकर
बालों को सहलाते हुए जा रही थी
और नर्म रेत सोने का आमंत्रण दे रही थी|